जीवन में आने वाली परेशानियाँ, चाहे वे शारीरिक हों, मानसिक हों या आध्यात्मिक, हमें अक्सर निराश और हताश कर देती हैं। ऐसे में, अगर कोई सरल और प्रभावी उपाय मिल जाए, जिससे इन सभी परेशानियों से छुटकारा पाया जा सके, तो इसे कौन नहीं अपनाना चाहेगा? ऐसा ही एक अद्भुत उपाय है श्री हनुमान बाहुक पाठ।
हनुमान जी की कृपा और उनकी शक्ति का वर्णन करने वाला यह पाठ न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह आपके जीवन की हर समस्या का समाधान भी प्रस्तुत करता है। आइए, जानते हैं श्री हनुमान बाहुक पाठ के चमत्कारी लाभों के बारे में।
गोस्वामी तुलसीदास जी रचित 44 पद्यों का शीघ्र फलदायक स्तोत्र, जिसकी रचना उन्होंने असह्य बहुव्याधि से हताश होकर हनुमान आराधना के लिए की | तुलसीदास जी का मनोरथ पूरा करने वाले इस स्तोत्र का श्रद्धापूर्वक पाठ,असंख्य हरी भक्तों का कष्ट दूर कर आनंददायक सिद्ध हुआ है |
इस चमत्कारिक हनुमान मंत्र का जाप अवश्य करें और अगर आप को इससे आत्मबल और आत्मशांति महसूस होती है तो, इसे अपने सभी सगे सम्बन्धियों से शेयर जरूर जरूर करे | आपकी सभी प्रकार की दुःख एवं बाधाओं का निवारण करने वाला मंत्र है ये |
हनुमान बाहुक पाठ
छप्पय
सिंधु तरन, सिय-सोच हरन, रबि बाल बरन तनु ।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु ॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।
जातुधान-बलवान मान-मद-दवन पवनसुव ॥
कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।
गुन गनत, नमत, सुमिरत जपत समन सकल-संकट-विकट ॥१॥
हनुमान बाहुक के श्लोक का अर्थ
शरीर का रंग उदयकाल के सूर्य के समान है, जो समुद्र लाँघकर श्रीजानकीजी के शोक को हरने वाले, आजानुबाहु, डरावनी सूरत वाले और मानो काल के भी काल हैं।
लंका-रुपी गम्भीर वन को, जो जलाने योग्य नहीं था, उसे जिन्होंने निःसंक जलाया और जो टेढ़ी भौंहो वाले तथा बलवान् राक्षसों के मान और गर्व का नाश करने वाले हैं,
तुलसीदास जी कहते हैं – वे श्रीपवनकुमार सेवा करने पर बड़ी सुगमता से प्राप्त होने वाले, अपने सेवकों की भलाई करने के लिये सदा समीप रहने वाले तथा गुण गाने, प्रणाम करने एवं स्मरण और नाम जपने से सब भयानक संकटों को नाश करने वाले हैं।। १।।
स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रवि तरुन तेज घन ।
उर विसाल भुज दण्ड चण्ड नख-वज्रतन ॥
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।
कपिस केस करकस लंगूर, खल-दल-बल-भानन ॥
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति विकट ।
संताप पाप तेहि पुरुष पहि सपनेहुँ नहिं आवत निकट ॥२॥
हनुमान बाहुक के श्लोक का अर्थ
वे सुवर्ण-पर्वत (सुमेरु) – के समान शरीरवाले, करोड़ों मध्याह्न के सूर्य के सदृश अनन्त तेजोराशि, विशाल-हृदय, अत्यन्त बलवान् भुजाओं वाले तथा वज्र के तुल्य नख और शरीरवाले हैं, भौंह, जीभ, दाँत और मुख विकराल हैं, बाल भूरे रंग के तथा पूँछ कठोर और दुष्टों के दल के बल का नाश करने वाली है।
तुलसीदासजी कहते हैं – श्रीपवनकुमार की डरावनी मूर्ति जिसके हृदय में निवास करती है, उस पुरुष के समीप दुःख और पाप स्वप्न में भी नहीं आते।।२।।
झूलना
पञ्चमुख-छःमुख भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व सरि समर समरत्थ सूरो ।
बांकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह जासुबल, बिपुल जल भरित जग जलधि झूरो ।
दुवन दल दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ॥३॥
हनुमान बाहुक के श्लोक का अर्थ
शिव, स्वामि-कार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवता-वृन्द सबके युद्ध रुपी नदी से पार जाने में योग्य योद्धा हैं। वेदरुपी वन्दीजन कहते हैं – आप पूरी प्रतिज्ञा वाले चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान् और यशस्वी हैं।
जिनके गुणों की कथा को रघुनाथ जी ने श्रीमुख से कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रम से अपार जल से भरा हुआ संसार-समुद्र सूख गया। तुलसी के स्वामी सुन्दर राजपूत (पवनकुमार) – के बिना राक्षसों के दल का नाश करने वाला दूसरा कौन है ? (कोई नहीं)।।३।।
घनाक्षरी
भानुसों पढ़न हनुमान गए भानुमन, अनुमानि सिसु केलि कियो फेर फारसो ।
पाछिले पगनि गम गगन मगन मन, क्रम को न भ्रम कपि बालक बिहार सो ॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरिहर विधि, लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खबार सो।
बल कैंधो बीर रस धीरज कै, साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि सार सो ॥४॥
सूर्य भगवान के समीप में हनुमान जी विद्या पढ़ने के लिये गये, सूर्यदेव ने मन में बालकों का खेल समझकर बहाना किया (कि मैं स्थिर नहीं रह सकता और बिना आमने-सामने के पढ़ना-पढ़ाना असम्भव है)।
हनुमान् जी ने भास्कर की ओर मुख करके पीठ की तरफ पैरों से प्रसन्न-मन आकाश-मार्ग में बालकों के खेल के समान गमन किया और उससे पाठ्यक्रम में किसी प्रकार का भ्रम नहीं हुआ।
इस अचरज के खेल को देखकर इन्द्रादि लोकपाल, विष्णु, रुद्र और ब्रह्मा की आँखें चौंधिया गयीं तथा चित्त में खलबली-सी उत्पन्न हो गयी।
तुलसीदासजी कहते हैं – सब सोचने लगे कि यह न जाने बल, न जाने वीररस, न जाने धैर्य, न जाने हिम्मत अथवा न जाने इन सबका सार ही शरीर धारण किये हैं।। ४।।
भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर, बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ॥
बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि, फलँग फलाँग हूतें घाटि नभ तल भो ।
नाई-नाई-माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जो हैं, हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ॥५॥
महाभारत में अर्जुन के रथ की पताका पर कपिराज हनुमान जी ने गर्जन किया, जिसको सुनकर दुर्योधन की सेना में घबराहट उत्पन्न हो गयी। द्रोणाचार्य और भीष्म-पितामह ने कहा कि ये महाबली पवनकुमार है।
जिनका बल वीर-रस-रुपी समुद्र का जल हुआ है। इनके स्वाभाविक ही बालकों के खेल के समान धरती से सूर्य तक के कुदान ने आकाश-मण्डल को एक पग से भी कम कर दिया था।
सब योद्धागण मस्तक नवा-नवाकर और हाथ जोड़-जोड़कर देखते हैं। इस प्रकार हनुमान् जी का दर्शन पाने से उन्हें संसार में जीने का फल मिल गया।। ५।।
गो-पद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निःसंक पर पुर गल बल भो ।
द्रोन सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ॥
संकट समाज असमंजस भो राम राज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसी को नाई जा की बाँह, लोक पाल पालन को फिर थिर थल भो ॥६॥
समुद्र को गोखुर के समान करके निडर होकर लंका-जैसी (सुरक्षित नगरी को) होलिका के सदृश जला डाला, जिससे पराये (शत्रु के) पुर में गड़बड़ी मच गयी।
द्रोण-जैसा भारी पर्वत खेल में ही उखाड़ गेंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल-फल के समान क्रीडा की सामग्री बन गया। राम-राज्य में अपार संकट (लक्ष्मण-शक्ति) -से असमंजस उत्पन्न हुआ (उस समय जिसके पराक्रम से) युग समूह में होने वाला काम पलभर में मुट्ठी में आ गया।
तुलसी के स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान् हैं, जिनकी भुजाएँ लोकपालों को पालन करने तथा उन्हें फिर से स्थिरता-पूर्वक बसाने का स्थान हुईं।। ६।।
कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो, नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।
जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो, महा मीन बास तिमि तोमनि को थल भो ॥
कुम्भकरन रावन पयोद नाद ईधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान, सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ॥७॥
कच्छप की पीठ में जिनके पाँव के गड़हे समुद्र का जल भरने के लिये मानो नाप के पात्र (बर्तन) हुए। राक्षसों का नाश करते समय वह (समुद्र) ही उनके भागकर छिपने का गढ़ हुआ तथा वही बहुत-से बड़े-बड़े मत्स्यों के रहने का स्थान हुआ।
तुलसीदासजी कहते हैं – रावण, कुम्भकर्ण और मेघनाद रुपी ईंधन को जलाने के निमित्त जिनका प्रताप प्रचण्ड अग्नि हुआ।
भीष्मपितामह कहते हैं – मेरी समझ में हनुमान जी के समान अत्यन्त बलवान् तीनों काल और तीनों लोक में कोई नहीं हुआ।। ७||
दूत राम राय को सपूत पूत पौनको तू, अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।
सीय-सोच-समन, दुरित दोष दमन, सरन आये अवन लखन प्रिय प्राण सो ॥
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो, प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान, साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ॥८॥
आप राजा रामचन्द्रजी के दूत, पवनदेव के सुयोग्य पुत्र, अंजनी देवी को आनन्द देने वाले, असंख्य सूर्यों के समान तेजस्वी, सीताजी के शोकनाशक, पाप तथा अवगुण के नष्ट करने वाले, शरणागतों की रक्षा करने वाले और लक्ष्मणजी को प्राणों के समान प्रिय हैं।
तुलसीदासजी के दुस्सह दरिद्र-रुपी रावण का नाश करने के लिये आप तीनों लोकों में आश्रय रूप प्रकट हुए हैं। अरे लोगो! तुम ज्ञानी, गुणवान्, बलवान् और सेवा (दूसरों को आराम पहुँचाने)- में सजग हनुमान् जी के समान चतुर स्वामी को अपने हृदय में बसाओ।।८।।
दवन दुवन दल भुवन बिदित बल, बेद जस गावत बिबुध बंदी छोर को ।
पाप ताप तिमिर तुहिन निघटन पटु, सेवक सरोरुह सुखद भानु भोर को ॥
लोक परलोक तें बिसोक सपने न सोक, तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास। नाम कलि कामतरु केसरी किसोर को ॥९॥
दानवों की सेना को नष्ट करने में जिनका पराक्रम विश्व-विख्यात है, वेद यश-गान करते हैं कि देवताओं को कारागार से छुड़ाने वाला पवनकुमार के सिवा दूसरा कौन है ?
आप पापान्धकार और कष्ट-रुपी पाले को घटाने में प्रवीण तथा सेवक रुपी । कमल को प्रसन्न करने के लिये प्रातः-काल के सूर्य के समान हैं।
तुलसी के हृदय में एकमात्र हनुमान जी का भरोसा है, स्वप्न में भी लोक और परलोक की चिन्ता नहीं, शोकरहित हैं, रामचन्द्रजी के दुलारे शिव-स्वरुप (ग्यारह रुद्र में एक) केसरी-नन्दन का नाम कलिकाल में कल्प-वृक्ष के समान है।। ९।।
महाबल सीम महा भीम महाबान इत, महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।
कुलिस कठोर तनु जोर परै रोर रन, करुना कलित मन धारमिक धीर को ॥
दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को, सुमिरे हरन हार तुलसी की पीर को ।
सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को, सेवक सहायक है साहसी समीर को ॥१०॥
आप अत्यन्त पराक्रम की हद, अतिशय कराल, बड़े बहादुर और रघुनाथजी द्वारा चुने हुए महाबलवान् विख्यात योद्धा हैं। वज्र के समान कठोर शरीर वाले जिनके जोर पड़ने अर्थात् बल करने से रणस्थल में कोलाहल मच जाता है, सुन्दर करुणा एवं धैर्य के स्थान और मन से धर्माचरण करने वाले हैं।
दुष्टों के लिये काल के समान भयावने, सज्जनों को पालने वाले और स्मरण करने से तुलसी के दुःख को हरने वाले हैं। सीताजी को सुख देने वाले, रघुनाथजी के दुलारे और सेवकों की सहायता करने में पवनकुमार बड़े ही साहसी हैं।। १०।।
रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि हर, मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।
धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को, सोखिबे कृसानु पोषिबे को हिम भानु भो ॥
खल दुःख दोषिबे को, जन परितोषिबे को, माँगिबो मलीनता को मोदक दुदान भो ।
आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर, तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ॥११॥
आप सृष्टि-रचना के लिये ब्रह्मा, पालन करने को विष्णु, मारने को रुद्र और जिलाने के लिये अमृत-पान के समान हुए; धारण करने में धरती, अन्धकार को नसाने में सूर्य, सुखाने में अग्नि, पोषण करने में चन्द्रमा और सूर्य हुए; खलों को दुःख देने और दूषित बनाने वाले, सेवकों को संतुष्ट करने वाले एवं माँगना-रुपी मैलेपन का विनाश करने में मोदक-दाता हुए।
तीनों लोकों में दुःखियों के दुःख छुड़ाने के लिये तुलसी के स्वामी श्रीहनुमान् जी दृढ़-प्रतिज्ञ हुए हैं।। ११।।
सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि, सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ, बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद, ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।
सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ तहाँ ताहि, जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ॥१२॥
सेवक हनुमान जी की सेवा समझकर जानकीनाथ ने संकोच माना अर्थात् अहसान से दब गये, शिवजी पक्ष में रहते और स्वर्ग के स्वामी इन्द्र नवते हैं। देवी-देवता, दानव सब दया के पात्र बनकर हाथ जोड़ते हैं, फिर दूसरे बेचारे दरिद्र-दुःखिया राजा कौन चीज हैं।
जागते, सोते, बैठते, डोलते, क्रीड़ा करते और आनन्द में मग्न (पवनकुमार के) सेवक का अनिष्ट चाहेगा ऐसा कौन सिद्धान्त का समर्थ है ? उसका जहाँ-तहाँ सब दिन श्रेष्ठ रीति से पूरा पड़ेगा, जिसके हृदय में अंजनीकुमार की हाँक का भरोसा है।। १२।।
सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि, लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि, तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥
केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब, कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।
बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्धता को, जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ॥१३॥
जिसके हृदय में हनुमान जी की हाँक उल्लसित होती है, उसपर अपने सेवकों और पार्वतीजी के सहित शंकर भगवान्, समस्त लोकपाल, श्रीरामचन्द्र, जानकी और लक्ष्मणजी भी प्रसन्न रहते हैं।
तुलसीदासजी कहते हैं फिर लोक और परलोक में शोकरहित हुए उस प्राणी को तीनों लोकों में किसी योद्धा के आश्रित होने की क्या लालसा होगी ?
दया-निकेत केसरी-नन्दन निर्मल कीर्तिवाले हनुमान जी के प्रसन्न होने से सम्पूर्ण सिद्ध-मुनि उस मनुष्य पर दयालु होकर बालक के समान पालन करते हैं, उन करुणानिधान कपीश्वर की कीर्ति ऐसी ही निर्मल है।। १३।।
करुनानिधान बलबुद्धि के निधान हौ, महिमा निधान गुनज्ञान के निधान हौ ।
बाम देव रुप भूप राम के सनेही, नाम, लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥
आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील, लोक बेद बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।
मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार, तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥१४॥
तुम दया के स्थान, बुद्धि-बल के धाम, आनन्द महिमा के मन्दिर और गुण-ज्ञान के निकेतन हो; राजा रामचन्द्र के स्नेही, शंकरजी के रूप और नाम लेने से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के देने वाले हो।
हे हनुमान् जी! आप अपनी शक्ति से श्रीरघुनाथजी के शील-स्वभाव, लोक-रीति और वेद-विधि के पण्डित हो!मन, वचन, कर्म तीनों प्रकार से तुलसी आपका दास है, आप चतुर स्वामी हैं अर्थात् भीतर-बाहर की सब जानते हैं।। १४।।
मन को अगम तन सुगम किये कपीस, काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।
देवबंदी छोर रनरोर केसरी किसोर, जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।
बीर बरजोर घटि जोर तुलसी की ओर, सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।
बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं, जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ॥१५॥
हे कपिराज ! महाराज रामचन्द्रजी के कार्य के लिये सारा साज-समाज सजकर जो काम मन को दुर्गम था, उसको आपने शरीर से करके सुलभ कर दिया।
हे केशरी किशोर ! आप देवताओं को बन्दीखाने से मुक्त करने वाले, संग्राम-भूमि में कोलाहल मचाने वाले हैं और आपकी नामवरी युग-युग से संसार में विराजती है। हे जबरदस्त योद्धा !
आपका बल तुलसी के लिये क्यों घट गया, जिसको सुनकर साधु सकुचा गये हैं और दुष्टगण प्रसन्न हो रहे हैं, हे अंजनीकुमार ! मेरी बिगड़ी बात उसी तरह सुधारिये जिस प्रकार आपके प्रसन्न होने से होती (सुधरती) आयी है।। १५||
सवैया
जान सिरोमनि हो हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ॥
साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहां तुलसी को न चारो ।
दोष सुनाये तैं आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तो हिय हारो ॥१६॥
हे हनुमान जी! आप ज्ञान-शिरोमणी हैं और सेवकों के मन में आपका सदा निवास है। मैं किसी का क्या गिराता वा बिगाड़ता हूँ। हे स्वामी ! आपने मुझे सेवक के नाते से च्युत कर दिया, इसमें तुलसी का कोई वश नहीं है।
यद्यपि मन हृदय में हार गया है तो भी मेरा अपराध सुना दीजिये, जिसमें आगे के लिये होशियार हो जाऊँ।। १६।।
तेरे थपै उथपै न महेस, थपै थिर को कपि जे उर घाले ।
तेरे निबाजे गरीब निबाज बिराजत बैरिन के उर साले ॥
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।
बूढ भये बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ॥१७॥
हे वानरराज ! आपके बसाये हुए को शंकर भगवान भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घर को आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है?
हे गरीबनिवाज ! आप जिस पर प्रसन्न हुए, वे शत्रुओं के हृदय में पीड़ा रूप होकर विराजते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं, आपका नाम लेने से सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ी के जाले के समान फट जाते हैं।
बलिहारी ! क्या आप मेरी ही बार बूढ़े हो गये अथवा बहुत-से गरीबों का पालन करते – करते अब थक गये हैं ? (इसी से मेरा संकट दूर करने में ढील कर रहे हैं)।। १७।।
सिंधु तरे बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवासे ।
तैं रनि केहरि केहरि के बिदले अरि कुंजर छैल छवासे ॥
तोसो समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।
बानरबाज ! बढ़े खल खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवासे ॥१८॥
आपने समुद्र लाँघकर बड़े-बड़े दुष्ट राक्षसों का विनाश करके लंका -जैसे विकट गढ़ को जलाया। हे संग्राम-रुपी वन के सिंह ! राक्षस शत्रु बने-ठने हाथी के बच्चे के समान थे, आपने उनको सिंह की भाँति विनष्ट कर डाला।
आपने बराबर समर्थ और अच्छे स्वामी की सेवा करते हुए तुलसी दोष और दुःख की आग को सहन करे (यह आश्चर्य की बात है)।
हे वानर-रुपी बाज ! बहुत-से दुष्ट-जन-रुपी पक्षी बढ़ गये हैं, उनको आप बटेर के समान क्यों नहीं लपेट लेते ?|| १८।।
अच्छ विमर्दन कानन भानि दसानन आनन भा न निहारो ।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुञ्जर केहरि वारो ॥
राम प्रताप हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीर दुलारो ।
पाप ते साप ते ताप तिहूँ तें सदा तुलसी कह सो रखवारो ॥१९॥
हे अक्षयकुमार को मारने वाले हनुमान जी ! आपने अशोक-वाटिका को विध्वंस किया और रावण-जैसे प्रतापी योद्धा के मुख के तेज की ओर देखा तक नहीं अर्थात् उसकी कुछ भी परवाह नहीं की।
आप मेघनाद, अकम्पन और कुम्भकर्ण -सरीखे हाथियों के मद को चूर्ण करने में किशोरावस्था के सिंह हैं।
विपक्षरुप तिनकों के ढेर के लिये भगवान राम का प्रताप अग्नि-तुल्य है और पवनकुमार उसके लिये पवन-रुप हैं। वे पवननन्दन ही तुलसीदास को सर्वदा पाप, शाप और संताप – तीनों से बचाने वाले हैं।। १९।।
घनाक्षरी
जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन, मन अनुमानि बलि बोल न बिसारिये ।
सेवा जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी संभारिये ॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भान्ति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ॥२०॥
हे हनुमान जी ! बलि जाता हूँ, अपनी प्रतिज्ञा को न भुलाइये, जिसको संसार जानता है, मन में विचारिये, आपका कृपापात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज ! तुलसी कभी सेवा के योग्य था ?
क्या चूक हुई है, अपनी साहिबी को सँभालिये, मुझे अपराधी समझते हों तो सहस्त्रों भाँति की दुर्दशा कीजिये, किन्तु जो लड्डू देने से मरता हो उसको विष से न मारिये।
हे महाबली, साहसी, पवन के दुलारे, रघुनाथजी के प्यारे ! भुजाओं की पीड़ा को शीघ्र दूर कीजिये।। २०।।
बालक बिलोकि, बलि बारें तें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।
रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै दास रावरो विचारिये ॥
बड़ो बिकराल कलि काको न बिहाल कियो, माथे पगु बलि को निहारि सो निबारिये ।
केसरी किसोर रनरोर बरजोर बीर, बाँह पीर राहु मातु ज्यौं पछारि मारिये ॥२१॥
हे दीनबन्धु ! बलि जाता हूँ, बालक को देखकर आपने लड़कपन से ही अपनाया और मायारहित अनोखी दया की। सोचिये तो सही, तुलसी आपका दास है, इसको आपका भरोसा, आपका ही बल और आपकी ही आशा है।
अत्यन्त भयानक कलिकाल ने किसको बेचैन नहीं किया ?
इस बलवान् का पैर मेरे मस्तक पर भी देखकर उसको हटाइये। हे केशरीकिशोर, बरजोर वीर! आप रण में कोलाहल उत्पन्न करने वाले हैं, राहु की माता सिंहिका के समान बाहु की पीड़ा को पछाड़कर मार डालिये।। २१।।
उथपे थपनथिर थपे उथपनहार, केसरी कुमार बल आपनो संबारिये ।
राम के गुलामनि को काम तरु रामदूत, मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ॥
साहेब समर्थ तो सों तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर, मकरी ज्यों पकरि के बदन बिदारिये ॥२२॥
हे केशरीकुमार ! आप उजड़े हुए (सुग्रीव-विभीषण) – को बसाने वाले और बसे हुए (रावणादि)- को उजाड़ने वाले हैं, अपने उस बल का स्मरण कीजिये। हे रामदूत !
रामचन्द्रजी के सेवकों के लिये आप कल्पवृक्ष हैं और मुझ-सरीखे दीन-दुर्बलों को आपका ही सहारा है। हे वीर ! तुलसी के माथे पर आपके समान समर्थ स्वामी विद्यमान रहते हुए भी वह बाँधकर मारा जाता है।
बलि जाता हूँ, मेरी भुजा विशाल पोखरी के समान है और यह पीड़ा उसमें जलचर के सदृश है, सो आप मकरी के समान इस जलचरी को पकड़कर इसका मुख फाड़ डालिये।। २२।।
राम को सनेह, राम साहस लखन सिय, राम की भगति, सोच संकट निवारिये ।
मुद मरकट रोग बारिनिधि हेरि हारे, जीव जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ॥
कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम पब्बयतें, सुथल सुबेल भालू बैठि कै विचारिये ।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह पीर क्यों न, लंकिनी ज्यों लात घात ही मरोरि मारिये ॥२३॥
मुझमें रामचन्द्रजी के प्रति स्नेह, रामचन्द्रजी की भक्ति, राम-लक्ष्मण और जानकीजी की कृपा से साहस (दृढ़ता-पूर्वक कठिनाइयों का सामना करने की हिम्मत) है, अतः मेरे शोक-संकट को दूर कीजिये।
आनन्दरुपी बंदर रोग-रुपी अपार समुद्र को देखकर मन में हार गये हैं, जीवरुपी जाम्बवन्त को आपका बड़ा भरोसा है। हे कृपालु ! तुलसी के सुन्दर प्रेमरुपी पर्वत से कूदिये, श्रेष्ठ स्थान (हृदय) -रुपी सुबेलपर्वत पर बैठे हुए जीवरुपी जाम्बवन्त जी सोचते (प्रतीक्षा करते) हैं।
हे महाबली बाँके योद्धा ! मेरे बाहु की पीड़ारुपिणी लंकिनी को लात की चोट से क्यों नहीं मरोड़कर मार डालते ?|| २३।।
लोक परलोकहुँ तिलोक न विलोकियत, तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये ।
कर्म, काल, लोकपाल, अग जग जीवजाल, नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ॥
खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर, तुलसी सो, देव दुखी देखिअत भारिये ।
बात तरुमूल बाँहूसूल कपिकच्छु बेलि, उपजी सकेलि कपि केलि ही उखारिये ॥२४॥
लोक, परलोक और तीनों लोकों में चारों नेत्रों से देखता हूँ, आपके समान योग्य कोई नहीं दिखायी देता। हे नाथ ! कर्म, काल, लोकपाल तथा सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जीवसमूह आपके हू हाथ में हैं, अपनी महिमा को विचारिये। हे देव !
तुलसी आपका निजी सेवक है, उसके हृदय में आपका निवास है और वह भारी दुःखी दिखायी देता है। वात-व्याधि-जनित बाहु की पीड़ा केवाँच की लता के समान है, उसकी उत्पन्न हुई जड़ को बटोरकर वानरी खेल से उखाड़ डालिये।। २४।।
करम कराल कंस भूमिपाल के भरोसे, बकी बक भगिनी काहू तें कहा डरैगी ।
बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि, बाँहू बल बालक छबीले छोटे छरैगी ॥
आई है बनाई बेष आप ही बिचारि देख, पाप जाय सब को गुनी के पाले परैगी ।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपि कान्ह तुलसी की, बाँह पीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ॥२५॥
कर्मरुपी भयंकर कंसराजा के भरोसे बकासुर की बहिन पूतना राक्षसी क्या किसी से डरेगी ? बालकों को मारने में बड़ी भयावनी, जिसकी लीला कही नहीं जाती है, वह अपने बाहुबल से छोटे छबिमान् शिशुओं को छलेगी।
आप ही विचारकर देखिये, वह सुन्दर रूप बनाकर आयी है, यदि आप-सरीखे गुणी के पाले पड़ेगी तो सभी का पाप दूर हो जायेगा।
हे महाबली कपिराज ! तुलसी की बाहु की पीड़ा पूतना पिशाचिनी के समान है और आप बालकृष्ण-रुप हैं, यह आपके ही मारने से मरेगी॥२५॥
भाल की कि काल की कि रोष की त्रिदोष की है, बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।
करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की, पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ॥
पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि, बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की ।
आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ॥२६॥
यह कठिन पीड़ा कपाल की लिखावट है या समय, क्रोध अथवा त्रिदोष का या मेरे भयंकर पापों का परिणाम है, दुःख किंवा धोखे की छाया है।
मारणादि प्रयोग अथवा यन्त्र-मन्त्र रुपी वृक्ष का फल है; अरी मन की मैली पापिनी पूतना ! भाग जा, नहीं तो मैं डंका पीटकर कहे देता हूँ कि कपिराज का स्वभाव जानकर तू पगली न बने। जो बाहु की पीड़ा रहे तो मैं महाबीर बलवान् हनुमान् जी की दोहाई और सौगन्ध करता हूँ अर्थात् अब वह नहीं रह सकेगी।। २६।।
सिंहिका सँहारि बल सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।
लंक परजारि मकरी बिदारि बार बार, जातुधान धारि धूरि धानी करि डारी है ॥
तोरि जमकातरि मंदोदरी कठोरि आनी, रावन की रानी मेघनाद महतारी है ।
भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर, कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ॥२७॥
सिंहिका के बल का संहार करके सुरसा के छल को सुधार कर लंकिनी को मार गिराया और अशोक-वाटिका को उजाड़ डाला। लंकापुरी को विनाश किया।
यमराज का खड्ग अर्थात् परदा फाड़कर मेघनाद की माता और रावण की पटरानी को राजमहल से बाहर निकाल लाये। हे महाबली कपिराज !
तुलसी को बड़ा सोच है, किसके संकोच में पड़कर आपने केवल मेरे बाहु की पीड़ा के भय को छोड़ रखा है।। २७।।
तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र रवि राहु की ।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोक पाल सब, तेरो नाम लेत रहैं आरति न काहु की ॥
साम दाम भेद विधि बेदहू लबेद सिधि, हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की ।
आलस अनख परिहास कै सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ॥२८॥
हे वीर! आपके लड़कपन का खेल सुनकर धीरजवान भी भयभीत हो जाते हैं और इन्द्र, सूर्य तथा राहु अपने शरीर की सुध भुला जाती है।
आपके बाहुबाल से सब लोकपाल शोकरहित होकर बसते हैं और आपका नाम लेने से किसी का दुःख नहीं रह जाता। साम, दान और भेद-नीति का विधान तथा वेद-लवेद से भी सिद्ध है कि चोर-साहु की चोटी कपिनाथ के ही हाथ में रहती है।
तुलसीदास के जो इतने दिन बाहु की पीड़ा रही है सो क्या आपका आलस्य है अथवा क्रोध, परिहास या शिक्षा है।। २८।।
टूकनि को घर घर डोलत कँगाल बोलि, बाल ज्यों कृपाल नत पाल पालि पोसो है ।
कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर, आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है ॥
इतनो परेखो सब भान्ति समरथ आजु, कपिराज सांची कहौं को तिलोक तोसो है ।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि कोसो है ॥२९॥
हे गरीबों के पालन करने वाले कृपानिधान ! टुकड़े के लिये दरिद्रतावश घर-घर मैं डोलता-फिरता था, आपने बुलाकर बालक के समान मेरा पालन-पोषण किया है। हे वीर अंजनीकुमार ! मुख्यतः आपने ही मेरी रक्षा की है, अपने जन को आप न भुलायेंगे, इसका मुझे भी भरोसा है। हे कपिराज ! आज आप सब प्रकार समर्थ हैं, मैं सच कहता हूँ, आपके समान भला तीनों लोकों में कौन है ? किंतु मुझे इतना परेखा (पछतावा) है कि यह सेवक दुर्दशा सह रहा है, लड़कों के खेलवाड़ होने के समान चिड़िया की मृत्यु हो रही है और आप तमाशा देखते हैं।। २९।।
आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।
औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधीकाति है ॥
करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है ।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ॥३०॥
मेरे ही पाप वा तीनों ताप अथवा शाप से बाहु की पीड़ा बढ़ी है, वह न कही जाती और न सही जाती है। अनेक औषधि, यन्त्र-मन्त्र-टोटकादि किये, देवताओं को मनाया, पर सब व्यर्थ हुआ, पीड़ा बढ़ती ही जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म, काल और संसार का समूह-जाल कौन ऐसा है जो आपकी आज्ञा को न मानता हो। हे रामदूत ! तुलसी आपका दास है और आपने इसको अपना सेवक कहा है। हे वीर ! आपकी यह ढील मुझे इस पीड़ा से भी अधिक पीड़ित कर रही है।। ३०।।
दूत राम राय को, सपूत पूत वाय को, समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को ।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत, रावन सो भट भयो मुठिका के धाय को ॥
एते बडे साहेब समर्थ को निवाजो आज, सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।
थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को, कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ॥३१॥
आप राजा रामचन्द्र के दूत, पवनदेव के सत्पुत्र, हाथ-पाँव के समर्थ और निराश्रितों के सहायक हैं। आपके सुन्दर यश की कथा विख्यात है, वेद गान करते हैं और रावण-जैसा त्रिलोक-विजयी योद्धा आपके घूसे की चोट से घायल हो गया। इतने बड़े योग्य स्वामी के अनुग्रह करने पर भी आपका श्रेष्ठ सेवक आज तन-मन-वचन से दुःख पा रहा है। तुलसी को इस थोड़ी-सी बाहुपीड़ा की बड़ी ग्लानि है, मेरे कौन-से पाप के कारण वा क्रोध से आपका प्रत्यक्ष प्रभाव लुप्त हो गया है ?|| ३१।।
देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग, छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाग, राम दूत की रजाई माथे मानि लेत हैं ॥
घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग, हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं ।
क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को, सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ॥३२॥
देवी, देवता, दैत्य, मनुष्य, मुनि, सिद्ध और नाग आदि छोटे-बड़े जितने जड़-चेतन जीव हैं तथा पूतना, पिशाचिनी, राक्षसी-राक्षस जितने कुटिल प्राणी हैं, वे सभी रामदूत पवनकुमार की आज्ञा शिरोधार्य करके मानते हैं। भीषण यन्त्र-मन्त्र, धोखाधारी, छलबाज और दुष्ट रोगों के आक्रमण हनुमान् जी की दोहाई सुनकर स्थान छोड़ देते हैं। मेरे खोटे कर्म पर क्रोध कीजिये, तुलसी को सुखावन दीजिये और जो दोष हमें दुःख देते हैं, उनका सुधार करिये।। ३२।।
तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों, तेरे घाले जातुधान भये घर घर के ।
तेरे बल राम राज किये सब सुर काज, सकल समाज साज साजे रघुबर के ॥
तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत, सजल बिलोचन बिरंचि हरिहर के ।
तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीस नाथ, देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ॥३३॥
आपके बल ने युद्ध में वानरों को रावण से जिताया और आपके ही नष्ट करने से राक्षस घर-घर के (तीन-तेरह) हो गये। आपके ही बल से राजा रामचन्द्रजी ने देवताओं का सब काम पूरा किया और आपने ही रघुनाथजी के समाज का सम्पूर्ण साज सजाया। आपके गुणों का गान सुनकर देवता रोमांचित होते हैं और ब्रह्मा, विष्णु, महेश की आँखों में जल भर आता है। हे वानरों के स्वामी ! तुलसी के माथे पर हाथ फेरिये, आप-जैसे अपनी मर्यादा की लाज रखने वालों के दास कभी दुःखी नहीं देखे गये।। ३३।।
पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।
भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष, पोषि तोषि थापि आपनो न अव डेरिये ॥
अँबु तू हौं अँबु चूर, अँबु तू हौं डिंभ सो न, बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ॥३४॥
आपके टुकड़ों से पला हूँ, चूक पड़ने पर भी मौन न हो जाइये। मैं कुमार्गी दो कौड़ी का हूँ, पर आप अपनी ओर देखिये। हे भोलेनाथ ! अपने भोलेपन से ही आप थोड़े से रुष्ट हो जाते हैं, सन्तुष्ट होकर मेरा पालन करके मुझे बसाइये, अपना सेवक समझकर दुर्दशा न कीजिये। आप जल हैं तो मैं मछली हूँ, आप माता हैं तो मैं छोटा बालक हूँ, देरी न कीजिये, मुझको आपका ही सहारा है। बच्चे को व्याकुल जानकर प्रेम की पहचान करके रक्षा कीजिये, तुलसी की बाँह पर अपनी लम्बी पूँछ फेरिये (जिससे पीड़ा निर्मूल हो जावे)||३४||
घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम मूल मलिनाई है ॥
करुनानिधान हनुमान महा बलवान, हेरि हँसि हाँकि फूंकि फौंजै ते उड़ाई है ।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ॥३५॥
रोगों, बुरे योगों और दुष्ट लोगों ने मुझे इस प्रकार घेर लिया है जैसे दिन में बादलों का घना समूह झपटकर आकाश में दौड़ता है। पीड़ा-रुपी जल बरसाकर इन्होंने क्रोध करके बिना अपराध यशरुपी जवासे को अग्नि की तरह झुलसकर मूर्छित कर दिया है। हे दया-निधान महाबलवान हनुमान जी! आप हँसकर निहारिये और ललकारकर विपक्ष की सेना को अपनी फूंक से उड़ा दीजिये। हे केशरीकिशोर वीर! तुलसी को कुरोग-रुपी निर्दय राक्षस ने खा लिया था, आपने जोरावरी से मेरी रक्षा की है।।३५||
सवैया
राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ॥
बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ॥३६॥
हे गोस्वामी हनुमान जी ! आप श्रेष्ठ स्वामी और सदा श्रीरामचन्द्रजी के सेवकों के पक्ष में रहने वाले हैं। आनन्द-मंगल के मूल दोनों अक्षरों (राम-राम)- ने माता-पिता के समान मेरा पालन किया है। हे बाहुपगार (भुजाओं का आश्रय देने वाले)! बाहु की पीड़ा से मैं सारा आनन्द भुलाकर दुःखी होकर पुकार रहा हूँ। हे रघुकुल के वीर! पीड़ा को दूर कीजिये, जिससे दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबार में पड़ा रहूँ।। ३६।।
घनाक्षरी
काल की करालता करम कठिनाई कीधौ, पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे ।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन, सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ॥
लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि, सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।
भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान, जानियत सबही की रीति राम रावरे ॥३७॥
न जाने काल की भयानकता है कि कर्मों की कठीनता है, पाप का प्रभाव है अथवा स्वाभाविक बात की उन्मत्तता है। रात-दिन बुरी तरह की पीड़ा हो रही है, जो सही नहीं जाती और उसी बाँह को पकड़े हुए हैं जिसको पवनकुमार ने पकड़ा था।
तुलसीरुपी वृक्ष आपका ही लगाया हुआ है। यह तीनों तापों की ज्वाला से झलसकर मुरझा गया है, इसकी ओर निहारकर कृपारुपी जल से सींचिये। हे दयानिधान रामचन्द्रजी आप भूतों की, अपनी और विरानेकी सबकी रीति जानते हैं।। ३७॥
पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर, जर जर सकल पीर मई है ।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह, मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ॥
हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें, ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है ।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि, हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ॥३८॥
पाँव की पीड़ा, पेट की पीड़ा, बाहु की पीड़ा और मुख की पीड़ा-सारा शरीर पीड़ामय होकर जीर्ण-शीर्ण हो गया है। देवता, प्रेत, पितर, कर्म, काल और दुष्टग्रह-सब साथ ही दौरा करके मुझ पर तोपों की बाड़-सी दे रहे हैं।
बलि जाता है। मैं तो लडकपन से ही आपके हाथ बिना मोल बिका हुआ है और अपने कपाल में रामनाम का आधार लिख लिया है। हाय राजा रामचन्द्रजी ! कहीं ऐसी दशा भी हुई है कि अगस्त्य मुनि का सेवक गाय के खुर में डूब गया हो।। ३८।।
बाहुक सुबाहु नीच लीचर मरीच मिलि, मुँह पीर केतुजा कुरोग जातुधान है ।
राम नाम जप जाग कियो चहों सानुराग, काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है ॥
सुमिरे सहाय राम लखन आखर दौऊ, जिनके समूह साके जागत जहान है ।
तुलसी सँभारि ताडका सँहारि भारि भट, बेधे बरगद से बनाई बानवान है ॥३९॥
बाहु की पीड़ा रूपनीच सुबाहु और देह की अशक्तिरुप मारीच राक्षस और ताड़कारुपिणी मुख की पीड़ा एवं अन्यान्य बुरे रोगरुप राक्षसों से मिले हुए हैं। मैं रामनाम का जपरुपी यज्ञ प्रेम के साथ करना चाहता हूँ, पर कालद्रत के समान ये भूत क्या मेरे काबू के हैं? (कदापि नहीं।) संसार में जिनकी बड़ी नामवरी हो रही है वे (रा और म) दोनों अक्षर स्मरण करने पर मेरी सहायता करेंगे। हे तुलसी! तु ताड़का का वध करने वाले भारी योद्धा का स्मरण के, वह इन्हें अपने बाण का निशाना बनाकर बड़ के फल के समान भेदन (स्थान-च्युत) कर देंगे।।३९।।
बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो, राम नाम लेत माँगि खात टूक टाक हौं ।
परयो लोक रीति में पुनीत प्रीति राम राय, मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ॥
खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो, अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं ।
तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो, ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ॥४०॥
मैं बाल्यावस्था से ही सीधे मन से श्रीरामचन्द्रजी के सम्मुख हुआ, मुँह से राम नाम लेता टुकड़ा-टुकड़ी माँगकर खाता था। फिर युवावस्था में) लोकरीति में पडकर अज्ञानवश राजा रामचन्द्रजी के चरणों की पवित्र प्रीति को चटपट (संसार में) कूदकर तोड़ बैठा। उस समय, खोटे-खोटे आचरणों को करते हुए मुझे अंजनीकुमार ने अपनाया और रामचन्द्रजी के पुनीत हाथों से मेरा सुधार करवाया। तुलसी गोसाईं हुआ, पिछले खराब दिन भुला दिये, आखिर उसी का फल आज अच्छी तरह पा रहा हूँ।। ४०||
असन बसन हीन बिषम बिषाद लीन, देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को ।
तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो, दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ॥
नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो, बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को ।
ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस, फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ॥४१॥
जिसे भोजन-वस्त्र से रहित भयंकर विषाद में डूबा हुआ और दीन-दुर्बल देखकर ऐसा कौन था जो हाय-हाय नहीं करता था, ऐसे अनाथ तुलसी को दयासागर स्वामी रघुनाथजी ने। सनाथ करके अपने स्वभाव से उत्तम फल दिया। इस बीच में यह नीच जन प्रतिष्ठा पाकर फूल उठा (अपने को बड़ा समझने लगा) और तन-मन-वचन से रामजी का भजन छोड़ दिया, इसी से शरीर में से भयंकर बरतोर के बहाने रामचन्द्रजी का नमक फूट-फूटकर निकलता दिखायी दे रहा है॥४१॥
जीओ जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुर सरि को ।
तुलसी के दोहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँऊ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ॥
मो को झूँटो साँचो लोग राम कौ कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को ।
भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ॥४२॥
जानकी-जीवन रामचन्द्रजी का दास कहलाकर संसार में जीवित रहूँ और मरने के लिये काशी तथा गंगाजल अर्थात् सुरसरि तीर है। ऐसे स्थान में (जीवन-मरण से) तुलसी के दोनों हाथों में लड्ड है. जिसके जीने-मरने से लड़के भी सोच न करेंगे। सब लोग मुझको झूठा-सच्चा राम का ही दास कहते हैं और मेरे मन में भी इस बात का गर्व है कि मैं रामचन्द्रजी को छोड़कर न शिव का भक्त हूँ, न विष्णु का। शरीर की भारी पीड़ा से विकल हो रहा हूँ, उसको बिना रघुनाथजी के कौन दूर कर सकता है ?|| ४२।।
सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै ।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ॥
ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि की जै तुलसी को जानि जन फुर कै ।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै ॥४३॥
हे हनुमान जी! स्वामी सीतानाथजी आपके नित्य ही सहायक हैं और हितोपदेश के लिये महेश मानो गुरु ही हैं। मुझे तो तन, मन, वचन से आपके चरणों की ही शरण है, आपके भरोसे मैंने देवताओं को देवता करके नहीं माना। रोग व प्रेत द्वारा उत्पन्न अथवा किसी दुष्ट के उपद्रव से हुई पीड़ा को दूर करके तुलसी को अपना सच्चा सेवक जानकर इसकी शान्ति कीजिये। हे कपिनाथ, रघुनाथ, भोलानाथ भूतनाथ! रोगरुपी महासागर को गाय के खुर के समान क्यों नहीं कर डालते ?|| ४३।।
कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ॥
माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहें साँची मन गुनिये ।
तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहिं, हौं हूँ रहों मौनही वयो सो जानि लुनिये ॥४४॥
मैं हनुमान जी से, सुजान राजा राम से और कृपानिधान शंकरजी से कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये। देखा जाता है कि विधाता ने सारी दुनिया को हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण और दोषमय बनाया है। वेद कहते हैं कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव के करने वाले रामचन्द्रजी हैं। इस बात को मैंने चित्त में सत्य माना है। मैं विनती करता हूँ, मुझे यह समझा। दीजिये कि आपसे क्या नहीं हो सकता। फिर मैं भी यह जानकर चुप रहूँगा कि जो बोया है वही काटता हूँ।। ४४||
हनुमान बाहुक का धार्मिक महत्व
हनुमान जी को शक्ति, साहस, और भक्ति का प्रतीक माना जाता है। वह अजर-अमर हैं और भक्तों के सभी कष्टों को दूर करने में सक्षम हैं। हनुमान बाहुक का पाठ करने से व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक कष्ट दूर होते हैं और उसे हनुमान जी की विशेष कृपा प्राप्त होती है।
हनुमान बाहुक को रामचरितमानस के समान महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि इसमें हनुमान जी की महिमा का विस्तृत वर्णन है। हनुमान बाहुक में तुलसीदास जी ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों को भी सम्मिलित किया है, जिससे यह ग्रंथ और भी प्रभावशाली हो जाता है।
हनुमान बाहुक पाठ की विधि
हनुमान बाहुक का पाठ करने के लिए विशेष विधि और समय की आवश्यकता होती है। यहाँ हनुमान बाहुक पाठ की विधि का विस्तृत वर्णन किया गया है:
1. स्नान और शुद्धि:
पाठ करने से पहले स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें। पाठ के दौरान पवित्रता का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
2. हनुमान जी का ध्यान:
पाठ की शुरुआत में हनुमान जी का ध्यान करें और उन्हें अपने कष्टों के निवारण के लिए प्रार्थना करें। हनुमान जी की एक मूर्ति या चित्र के सामने दीपक जलाकर पाठ आरंभ करें।
3. पाठ का समय:
हनुमान बाहुक का पाठ सुबह के समय या संध्या के समय करना अत्यधिक शुभ माना जाता है। यह पाठ आप हनुमान जी के किसी विशेष दिन, जैसे मंगलवार या शनिवार, को भी कर सकते हैं।
4. श्रद्धा और विश्वास:
पाठ को पूरे मन से, श्रद्धा और विश्वास के साथ करें। पाठ करते समय एकाग्रता बनाए रखें और हनुमान जी की महिमा का ध्यान करते रहें।
5. अंत में आरती:
पाठ समाप्त करने के बाद हनुमान जी की आरती करें और उनके चरणों में अपनी समस्त समस्याओं का समाधान पाने की प्रार्थना करें। आरती के बाद प्रसाद वितरण करें।
हनुमान बाहुक पाठ के लाभ
हनुमान बाहुक का पाठ करने से व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं। इस पाठ के कई विशेष लाभ हैं:
1. शारीरिक कष्टों से मुक्ति:
हनुमान बाहुक का पाठ करने से शरीर के कष्ट और रोग दूर होते हैं। तुलसीदास जी ने स्वयं इस पाठ से अपने शारीरिक कष्टों से मुक्ति पाई थी, और इस पाठ को करने वाले भक्तों ने भी इसका अनुभव किया है। यह पाठ हनुमान जी की शक्ति और कृपा को समर्पित है, जिससे व्यक्ति के सभी शारीरिक कष्ट समाप्त हो जाते हैं।
2. मानसिक शांति और तनाव मुक्ति:
इस पाठ का नियमित अभ्यास मानसिक शांति और स्थिरता प्रदान करता है। यह व्यक्ति के मन से तनाव, चिंता, और अवसाद को दूर करता है। हनुमान जी की महिमा का स्मरण करने से मन को एक अद्भुत शांति का अनुभव होता है।
3. भूत-प्रेत बाधा निवारण:
हनुमान बाहुक का पाठ भूत-प्रेत बाधा, नकारात्मक ऊर्जाओं, और अदृश्य शक्तियों से बचाव करता है। हनुमान जी की कृपा से नकारात्मक शक्तियां व्यक्ति के पास नहीं फटकतीं और वह सुरक्षित रहता है।
4. हनुमान जी की कृपा प्राप्ति:
हनुमान बाहुक का पाठ करने से हनुमान जी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। हनुमान जी की भक्ति से व्यक्ति के जीवन में सुख-शांति और समृद्धि आती है। हनुमान जी के प्रति सच्ची श्रद्धा और विश्वास रखने वाले भक्त को उनके आशीर्वाद से जीवन की हर कठिनाई का सामना करने की शक्ति मिलती है।
5. पारिवारिक कल्याण:
इस पाठ का नियमित अभ्यास पूरे परिवार के लिए कल्याणकारी होता है। घर में सुख-शांति बनी रहती है और परिवार के सभी सदस्य हनुमान जी की कृपा से सुरक्षित रहते हैं।
हनुमान बाहुक पाठ के अनुभव
कई भक्तों ने हनुमान बाहुक के नियमित पाठ से अद्भुत अनुभव किए हैं। कई लोगों ने बताया है कि इस पाठ के माध्यम से उन्होंने अपने शारीरिक कष्टों से मुक्ति पाई है, और मानसिक शांति प्राप्त की है। हनुमान जी की भक्ति में लीन होकर किया गया यह पाठ व्यक्ति को अपने जीवन के कठिन समय में सहारा प्रदान करता है और उसे नई ऊर्जा और साहस से भर देता है।
श्री हनुमान बाहुक एक अत्यंत शक्तिशाली भक्ति ग्रंथ है, जो हनुमान जी की कृपा प्राप्त करने और जीवन की कठिनाइयों से मुक्ति पाने का एक प्रभावी साधन है। इस पाठ के नियमित अभ्यास से व्यक्ति के जीवन में शांति, समृद्धि, और सुख-शांति का संचार होता है। हनुमान जी की असीम शक्ति और भक्ति का यह पाठ आपके जीवन को सकारात्मक दिशा में ले जाने में सक्षम है। यदि आप भी किसी शारीरिक, मानसिक, या आध्यात्मिक समस्या का सामना कर रहे हैं, तो श्रद्धा और विश्वास के साथ हनुमान बाहुक का पाठ करें और हनुमान जी की कृपा से उन समस्याओं का समाधान पाएं।
FAQ
प्रश्न 1: हनुमान बाहुक का पाठ कब करना चाहिए?
उत्तर: हनुमान बाहुक का पाठ किसी भी दिन किया जा सकता है, लेकिन मंगलवार और शनिवार को इसे करना विशेष रूप से शुभ माना जाता है। सुबह या शाम के समय पाठ करना अधिक लाभकारी होता है।
प्रश्न 2: क्या हनुमान बाहुक का पाठ रोज़ करना चाहिए?
उत्तर: हां, हनुमान बाहुक का पाठ रोज़ करना बहुत ही शुभ माना जाता है। नियमित पाठ से व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन होते हैं और हनुमान जी की कृपा बनी रहती है।
प्रश्न 3: हनुमान बाहुक का पाठ करने से क्या लाभ होते हैं?
उत्तर: हनुमान बाहुक का पाठ करने से शारीरिक कष्टों से मुक्ति, मानसिक शांति, भूत-प्रेत बाधा निवारण, और हनुमान जी की कृपा प्राप्त होती है। यह पाठ व्यक्ति के जीवन में सुख-शांति और समृद्धि लाता है।
प्रश्न 4: क्या हनुमान बाहुक का पाठ किसी विशेष दिन पर ही करना चाहिए?
उत्तर: हनुमान बाहुक का पाठ किसी भी दिन किया जा सकता है, लेकिन इसे मंगलवार और शनिवार को करना अधिक शुभ माना जाता है। इन दिनों हनुमान जी की पूजा का विशेष महत्व होता है।
प्रश्न 5: हनुमान बाहुक का पाठ कैसे शुरू करें?
उत्तर: हनुमान बाहुक का पाठ शुरू करने से पहले स्नान करें, स्वच्छ वस्त्र धारण करें, और हनुमान जी का ध्यान करें। पाठ के दौरान मन को शांत और एकाग्र रखें, और हनुमान जी की महिमा का स्मरण करते रहें।